Monday, June 27, 2016

मुग़ल शासन के अंतिम समय में अस्त्र-शस्त्र (Arms and Armour during Late Medieval Period India (Mughal Period-English Period)

 वूट्ज़ या दमिस्क स्टील (Wootz or Damascus Steel )

भारत में शस्त्र निर्माण कला की बहुत पुरानी परंपरा रही हैं, इस तथ्य की पुष्टि भारत के विभिन्न धार्मिक ग्रंथो एवं लोक कथाओ में वर्णित घटनाओ से होती हैं। भारत में विभिन्न विलक्षण प्रकार के अस्त्र एवं शस्त्रो का भी प्रयोग होता था, जिसके चित्र एवं वर्णन हमे धार्मिक ग्रंथो एवं कथाओ में मिलते हैं। भारत के लोग अपने शस्त्रों एवं अस्त्रों का निर्माण एक विशेष प्रकार की मिश्रित लौह धातु से करते थे जो जंग प्रतिरोधी थी एवं मूल इस्पात से करीब तिगुना ज्यादा कठोर होती थी। यह धातु इतनी कठोर और धारदार बनाई जा सकती थी की अट्ठारवी सदी तक बड़े पैमाने पर यह विश्व की सबसे कठोर मिश्र धातु थी। भारत में युद्ध के आवश्यक उपकरण एवं औज़ार इसी से बनाए जाते थे, छठवी सदी ईसा पूर्व आते आते इस इस्पात को बनाने की कला पूरे भारत में फैल चुकी थी। इस धातु से बने शास्त्रो पर कठोर धारियाँ उभर आती हैं, जो की शस्त्र को और ज्यादा मल्य और धारदार बना देती हैं । परंतु आज इस मिश्र धातु को बनाने की विधि लुप्त हो चुकी हैं, लेकिन इसके कुछ सजीव उदाहरण अभी भी मौजूद हैं, जैसे की गुप्त काल का लौह स्तम्भ जोकि आज भी आप कुतुब मीनार के समीप स्थित राय मंदिर के अवशेषो में देख सकते हैं जोकि करीब 1600 वर्षो से खड़ा आज भी बहुत अच्छी स्थिति में हैं। यह पूरा का पूरा स्तम्भ ठोस भारतीय इस्पात का बना हुआ हैं। इसी तरह के स्तम्भ भारत के माउंट आबू और धार, मध्य प्रदेश एवं कोदाचाद्री, तमिलनाडू में भी मिले हैं। झारखंड के तंगीनाथ शिव मंदिर का त्रिशूल भी इसी मिश्र धातु का बना हुआ हैं जो की पिछले 800 वर्षो से जंग से पूर्णतया सुरक्षित हैं।
वूट्ज़ इस्पात संरचना
वूट्ज़ इस्पात पर बनी संरचना
दिल्ली के महरौली में लौह स्तम्भ जंग का नामो निशान भी नहीं
सबसे पहले इस मिश्र धातु से बने बाणो की कठोरता और उच्च गुणवत्ता के बारे में इतिहास के पितामह हेरोड़ोटेस ने अपनी पुस्तक हिस्टोरीका में लिखा है।
दक्षिण भारत में इस मिश्र धातु को ऊक्कू के नाम से जाना जाता था, जोकि यूरोपियन द्वारा वूकू हुआ और फिर वूट्ज़ हो गया, आज इस पौराणिक धातु को "वूट्ज़ स्टील" के नाम से जाना जाता हैं।
 इस धातु से पश्चिमी लोगो का पहला संक्षिप्त परिचय अलेक्षेन्द्र के भारत आक्रमण के समय हुआ, उस समय तक यूनान में बाणो के शरवाणी (नोक) कच्चे लोहे के बने हुये होते थे, जो कठोर धातु से टकरा कर मुड़ जाते थे, ऐसे बाण अक्सर यूनानी योद्धाओ के कवच में भी घुस नहीं पाते थे, इसलिए धनुर्धरियों का युद्ध में कोई खास स्थान नहीं था उनकी जगह यूनान में शस्त्रधारियों को अधिक वरीयता मिलती थी।
लेकिन भारत में ऐसा नहीं था, स्वयं यूनानी इतिहासकर अर्रियन ने इसका विवरण कुछ इस प्रकार दिया हैं। "भारतीय लोग अपने बास से बने धनुषो पर बड़ा गर्व करते हैं, धनुष सबसे भयंकर और आदरणीय युद्धास्त्र हैं। यह धनुष भारत के गरम वातावरण के अनुकूल होते हैं, भारतीय इन धनुषो का प्रयोग बहुतायत से करते हैं, धनुषो को बनाने में जन्तु की हड्डी, जानवरो के सींग, बांस, लकड़ी इत्यादी का प्रयोग होता हैं, कुछ कुछ धनुष सात फीट तक लंबे होते हैं और इन्हे चलाने के लिए भारतीय धनुष का एक हिस्सा भूमि पर रखकर बाए पैर के अंगूठे से दबाते हैं और फिर प्रत्यंचा चढाकर बाण छोड़ते हैं, यह बाण इतने बड़े और शक्तिशाली होते हैं की हाथी तक को बेध सकते हैं, यह बाण ढालो को भेदते हुये कवच में भी घुस जाते हैं। इन बाणो के आगे कुछ नहीं टिक सकता। इनके सामने ना तो ढाल, ना ही छातीपट्ट और ना ही कवच टिक सकता हैं।"
(http://www.hinduwebsite.com/history/arrian.asp)
http://www.telegraphindia.com/1150620/jsp/opinion/story_26663.jsp#.V3PFhhKEz6M

यूनान के योद्धा उस समय कांसे के कवच धरण करते थे और उनकी ढाल भी कांसे की बनी हुयी होती थी, भारत के वूट्ज़ इस्पात से बने हुये बाण शालका बड़े आराम से ढाल भेदते हुये उनके कवचो में घुस जाते थे, इस प्रकार भारतीय धनुषो एवं उनके बाणो ने मेसीडोनियन सेना को बड़ा भयभीत कर रखा था। कांसे की तलवार का क्या हश्र होता हैं यहाँ देखे

यह एक संक्षिप्त परिचय था, अलेक्षेंद्र की मृत्यु के बाद और उसके बाद मध्यपूर्व पर हुये विभिन्न घुमंतू जातियो के हमलो ने पश्चिम को पूर्व से काट दिया और इस धातु के बारे में फिर जानकारी समाप्त हो गयी, लेकिन इस बीच भारत में वूट्ज़ इस्पात पर निरंतर नए प्रयोग चलते ही रहे।

भारतीय व्यापारी तीसरी चौथी शताब्दी से इस मिश्र धातु का व्यापार ज्ञात विश्व के साथ करने लगे थे, बाकी भारतीय सामग्री जैसे की मसाले, खुशबूदार लकड़ी, वस्त्र, मयूर, मणियो, कस्तुरी, रेशम आदि की तरह धीरे-धीरे इस धातु की प्रसिद्धि पूरे ज्ञात विश्व में फैलने लगी और भारत से इस मिश्र धातु का निर्यात भी मिश्र, फारस, रोम को होने लगा। भारतीय व्यापारियो को इन सब व्यापार के बदले में काफी ठोस स्वर्ण मिलता था। वूट्ज़ इस्पात की ईटो से सिरिया की राजधानी दमिश्क में असि (शमशीर, खिलीज़) का निर्माण किया जाता था, जो की बेहद उच्च गुणवत्ता की बेजोड़ तलवारे होती थी, यह उस समय उपलब्ध सबसे उम्दा किस्म की धातु से बने शस्त्र थे। कहते थे की इनसे बनी शमशीरों से आप हवा में बहते हुये की चिड़िया का पंख भी काट सकते थे।

स्वयं 12वी सदी के अरबी इतिहासकार और भूविज्ञानी मुहम्मद अल इदरिसी ने लिखा हैं
"भारतीय लोग लोह धातुकर्म में विश्व में सबसे अधिक प्रवीण होते हैं, ये विश्व में प्रसिद्ध सबसे उच्च कोटि की लोह धातु बनाते हैं जिसे "हिंदुवानी" लोहा कहा जाता हैं, दमिश्क में बनने वाली फारसी शमशीर और खिलीज़ का लोहा यही दक्षिण भारत से आता हैं।" उसने यह भी बताया की कैसे दुनिया की सबसे प्रसिद्ध दमिश्क तलवारे भारत के हिंदुवानी लोहे से बनती हैं।
दमिश्क स्टील के प्रयोग के बारे में यहाँ देखे

  यूरोपियन लोगो से इसका दूसरी बार परिचय क्रूसेडस या जिहाद के दौरान हुआ, जब क्रिश्चियन क्रूसेडर्स धर्मयोद्धा येरूसलेम नगर को मुस्लिम हाथो से बचाने के लिए अरब के मध्यपूर्व में एक के बाद एक करके आने लगे। इस दौरान उनकी टक्कर मुस्लिम जिहादीयो के वूट्ज़ इस्पात से बनी शमशीरो से हुयी। अक्सर इन शमशीरों के हमले से क्रूसेडरों की स्वोर्ड एवं ढाल टूट जाती थी। कई बार क्रिश्चियन धर्मयोद्धाओ के हेलमेट को यह हिंदुवानी शमशीरे बिना किसी विशेष परेशानी के भेदते हुये सरो को काट डालती थी। क्रूसेडरों की लॉन्ग स्वार्ड टूटने की घटनाओ के सामने आने से इन यूरोपियन हमलावरों को विस्मय  में ड़ाल दिया। दरअसल में क्रूसेडरों के यरूशलम में हार का एक बड़ा कारण वूट्ज़ स्टील से बनी शमशीर और खिलीज़ थी। संख्या में अधिक होने के कारण भी क्रूसेडर, मुस्लिम जिहादीओ से बुरी तरह पराजित हो जाते थे। यूरोपियनो ने जब इस शस्त्र के उद्गम की खोज की तो पता चला की इस तरह की शमशीरे और खिलीज़ सिरिया के दमिश्क में बनती हैं, तब से इस मिश्र धातु जिसका की असल उद्गम भारत था का नाम "दमिश्क स्टील" बन गया। इस स्टील से बने हथियार को बड़ा सम्मान प्राप्त था, और पूरे विश्व में बड़े ऊँचे दाम पर बेचा जाता था।
दमिश्क शमशीरों की धार

मध्यकाल में भारत में मुग़लो और राजपुत राजाओ ने वूट्ज़ इस्पात को बहुत बढ़ावा दिया, आगे चलकर इसी मिश्र धातु से तोपे और बन्दूके बनाई जाने लगी, किलो के द्वार और बड़े संरचना इसी लोह धातु से बनाए  जाते थे। 17-18वी सदी तक यह शैली खूब फली फूली लेकिन ब्रिटिश सरकार ने भारत को अपने प्रभाव में लेने के बाद ब्रिटिश लोह उद्योग को विकसित करने के उद्देश्य से भारतीय लोहकर्म को प्रतिबंधित कर दिया। हालाँकि कई अँग्रेज़ो ने इस गुप्त भाषा को सीखने का प्रयास किया लेकिन वूट्ज़ इस्पात को दुबारा बना पाने में सफल ना हो सके।


http://www.mysteriesinhistory.com/ancient-artifacts/wootz-steel.php
http://met.iisc.ernet.in/~rangu/text.pdf
http://www.academia.edu/16248959/Ancient_metallurgy_culminating_in_Indian_ukku_wootz_steel_and_documented_in_Indus_Script_Corpora_by_Bh%C4%81ratam_Janam


भारत के प्राचीन इतिहास में शस्त्र के लिए "असि" का प्रयोग हुआ हैं, आज का प्रसिद्ध शब्द "तलवार" दरअसल में मुग़लो द्वारा विकसित एक विशिष्ट शस्त्र था। कालांतर में यह नाम इतना प्रसिद्ध हो गया की सभी तरह के शास्त्रो के लिए "तलवार" शब्द ही प्रयोग में लाया जाने लगा।

आगे मध्यकाल के अस्त्र और शास्त्रो का विवरण दिया गया हैं, आप चित्र के ऊपर क्लिक करके इन्हे आवर्धित करके भी देख सकते हैं।


जुल्फ़ीकार : 17वी ईसवी, मुगल कालीन (ZULFIQAR)
जुल्फ़ीकार, एक मुस्लिम पौराणिक "असि"(sword) हैं। जोकि मुहम्मद साहब ने अपने भतीजे "अली इब्न अबू तालिब को प्रदान की थी। यह दो मुही असि अबू को तब मिली जब "उहुद के युद्ध" में अली की स्वयं की असि टूट गयी। हालाँकि वह युद्धा विजय में सफल रहा लेकिन उसकी असि टूटने पर मुहम्मद ने स्वयं प्रसन्न होकर उसे यह दोमुंही असि उपहार स्वरूप दी।
मुस्लिम संस्कृति में ताबीज़ो पर अक्सर अरबी या फारसी में लिखा रहता हैं
                                 
                                      لا فتى إلا علي لا سيف إلا ذو الفقار
                 lā fata ʾillā ʿAlī; lā sayf ʾillā Ḏū l-Fiqār.
"अली जैसा कोई योद्धा नहीं; धु-अल-फिकर जैसी कोई तलवार नहीं।"
जुल्फिकार को कई स्थानो में मुस्लिम पोराणिक शस्त्र के रूप में दर्शाते हैं। तुर्की, मुग़ल सेना में पताकाओ पर ज़ुल्फिकार के चित्र बने होते थे। इस शस्त्र का प्रयोग युद्ध के बजाय इस्लामिक धार्मिक सभाओ या कार्यकर्मों मे ज्यादा हुआ करता था।
स्वयं मुग़लो ने ज़ुल्फिकार का प्रयोग धार्मिक युद्धो में मुस्लिम सेनाओ का आत्मविश्वास जगाने हेतु किया था।
इन मुग़ल कालीन ज़ुल्फिकार की विशेषता इनका वूट्ज़ या दमिश्क इस्पात से बना होना हैं। वूट्ज़ स्टील के बने होने की वजह से ज़ुल्फिकार की दातेदार या आरीदार धार बनाई जा सकी हैं। ज़ुल्फिकार को देखकर इस बात का अंदाजा लग जाता हैं की यह एक भयंकर काटने वाली असि हैं। जिसे केवल काटने के लिए बनाया गया था, इसके दो नोक इसे और भी ज्यादा भयानक और पौराणिक बना देते हैं । ज़ुल्फिकार के मूठ पर नज़र डालिए, यह बिलकुल भारतीय खोज हैं, इस तरह के मूठ केवल भारत में ही बनते थे, इस डलिएनुमा मूठ में केवल एक हाथ से पकड़ने की जगह हैं, वह भी इतनी तंग हैं की केवल एक ही हाथ से पकड़ी जा सकती हैं, इसका कारण असि को मजबूत तरीके से पकड़े रहना हैं क्यूंकी जब युद्ध में तलवारे आपस में टकराती हैं तो कंपन होता हैं और यदि असि पर मजबूत पकड़ ना हो तो वह हाथ से छुट जाती हैं, और हाथ की रक्षा करने हेतु लोहे का आवरण हैं। हिन्दू राजपूत योद्धाओ में पहले पहल इस तरह की मूठ प्रयोग में लायी जाती थी। इस असि के नीचे लोहे का एक छोटा उभार भी हैं। जोकि दो तरह से प्रयोग में लाया जाता हैं, 1. असि के पिछले भाग से शत्रु को घायल करना 2. अधिक शक्ति लगाकर युद्ध करने के लिए लोहे का उभार दूसरे हाथ से पकड़ने के लिए प्रयोग में आता हैं।



ऊपर ज़ुल्फिकार के साथ साथ कटार और खंजर भी हैं।






चंद्रहास असि, वूट्ज़ स्टील, मुग़ल कालीन
बिछुआ फल का असि में प्रयोग

चन्द्रहास असि : यह प्रकार बहुत दुर्लभ हैं, इस तरह की असि बनाने की तकनीकी दक्षिण भारत से ली गयी लगती हैं, असि की मूठ देखिये, ठेठ भारतीय कला का एक और नमूना, डलियाकार मूठ।



हाथी दाँत की मूठ वाला बिछुआ


बिछुआ : बिछुआ एक तरह का भारतीय चाकू होता हैं, इसकी उत्पत्ति हिन्दू दक्षिण भारत के विजय नगर साम्राज्य में हुयी, इस चाकू की प्रभावी डिज़ाइन इसे एक खतरनाक शस्त्र में बादल देती हैं, इसका प्रयोग केवल खोपने के लिए ही होता था, शत्रु को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पाहुचने के लिए इसका आकार यो बिच्छू के शरीर की तरह होता था।


खंजर : खंजर भारतीय शैली में नहीं आता, मुग़ल इसे मध्य पूर्व से लाये थे, इसकी उत्पत्ति शायद यमन में हुयी थी, साधारणतया खंजर मुस्लिम घरानो में उपहार स्वरूप दिये जाते थे, यह हाथी के दाँत से बना हुआ खंजर भी मुग़ल शासक को किसी कुलीन का उपहार ही हो सकता हैं। हालांकि बनावट में तो भारतीय ही लगता हैं।




नेपाली खुखरी, मुगल कालीन
खुखरी : नेपाल के हिन्दूओ द्वारा एक अनोखा अस्त्र खुखरी प्रयोग में लाया जाता था जो आज भी प्रचलन में हैं। खुखरी की बनावट ऐसी हैं की इसका इस्तेमाल भोकने और काटने दोनों में कर सकते हैं। इसे सामान्य चाकू की तरह घरो में भी इस्तेमाल किया जाता हैं। खुखरी का इतिहास






हिन्दू असि खंडा, वूट्ज़ इस्पात, मुग़ल कालीन


हिन्दू असि खंडा, वूट्ज़ इस्पात, मुग़ल कालीन


खंडा : भारत के हिन्दू इतिहास में खन्ड़ा ही शायद सबसे सम्मानजनक शस्त्र हैं। इसके पीछे कारण इसका राजपूत योद्धाओ द्वारा उपयोग करना हैं, भारत में मुग़लो द्वारा तलवार लाने से पहले खंडा ही योद्धाओ का प्रिय शस्त्र हुआ करता था, और हो भी ना कैसे खंडा के नाम कई युद्धो की विजय लिखी हुयी हैं। खंडा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के खड्ग से हुयी हैं जो की एक पौराणिक असि हैं। मध्यकाल के आरंभ होते ही पुरानी खड्ग में ही बदलाव करके अधिक श्रेष्ठ और प्रभावी खंडा का निर्माण किया गया, इसकी संरचना देखिये। पहले तो उच्च गुणवत्ता वाले वूट्ज़ इस्पात से बनी होती थी। दूसरा इनकी मूठ, विशुद्ध हिन्दू जालीदार मूठ हैं जिसके नीचे दूसरे हाथ को सहारा देने के लिए अलग से एक लोहे का हिस्सा निकला हुआ हैं, कहते हैं पृथ्वीराज चौहान ने इसके धार में क्रांतिकारी परिवर्तन करवाए, जैसे की असि की धार को सहारा देने के लिए दोनों तरफ अलग से डिजायन दार पट्टी जुड़वाई। जिससे असि को और बल मिल सके, खंडा की नोक नुकीली ना होकर चौड़ी पट्टी जैसे थी। वो दरअसल, खंडा के छोर को और ज्यादा बल देने के लिए थी जिससे की काटते समय पूरा बल लगे। वर्तमान में प्रयोगो से पता चला हैं की यह असि पूर्णता काटने का प्रभावी अस्त्र था जिसे चलाने में भी अत्याधिक बल की आवश्यकता होती होगी, यहा तक की विरोधी के कवच या उसके ढाल तलवार को काटने में भी यह खंडा प्रयोग में लायी जाती होगी,

ढाल को काटने का एक वर्णन, शिवा जी के सेनापति तानाजी मालसुरे द्वारा सिंघगढ़ का क़िला जीतने के समय आया था, जब वहाँ के राजपुत प्रहरी उदयभान सिंह राठोड से ताना जी का युद्ध होता हैं और वो पहले अपनी खांडा से तानाजी की ढाल तोड़ डालते हैं फिर उनकी तलवार भी तोड़ देते हैं, और अंत में ताना जी को भी समाप्त कर देते हैं।





हिन्दू खंडा के ऊपर बनी इस डिजाइन को देखे, यह इस असि की सुंदरता तो बढ़ाती हैं साथ साथ उसे मजबूती भी प्रदान करती हैं, कहते हैं की राजपूत क्षत्रिय खंडा घुमाने में माहिर थे, दोनों हाथो में खंडा लेकर उसे ज़बरदस्त तरीके से घुमाया जाता था जिससे की शत्रु पास भी आने की हिम्मत नहीं कर पता था। असि पर हाथ की सुरक्षा के लिए भारतीय शैली का ड़लियानुमा मूठ बना हैं, असि का फल वूट्ज़ इस्पात से बनना हुआ हैं तथा मूठ से रिवेट द्वारा जोड़ा गया हैं। मूठ के नीचे लोहे का उभार हैं, यह दूसरे हाथ को सहारा देने के लिए हैं। यानि के खंडा को एक हाथ और दोनों हाथो से चलाया जा सकता था। एक दूसरे तरीके का मूठ, मुग़ल मूठ कहलाता हैं, इसमे हाथ को सहारा देने के लिए गोलाकार रोका होता हैं। यह तकनीकी तुर्की खिलीज़ के काफी नजदीक लगती हैं।








हिन्दू खंडा के साथ साथ फारसी शमशीर

1. रत्न जड़ित अफगानी तेग, 2. हाथी दाँत के मूठ की कटार, 3. चाँदी के मूठ की शमशीर 
4. स्वर्णांकित कुरानी लेख वाला अफगानी तेग, 5. स्वर्णांकित मूठ वाली फारसी शमशीर





1. दोहरी धार वाली असि 2. छड़ी के आकार की मूठ वाली असि 3.चक्राकार मूठ वाली एवं स्वर्णांकृत कुरानिक लेख वाली तलवार 4. स्वर्णांकित मूठ वाली तलवार





भारतीय कटार, वूट्ज़ इस्पात, स्वर्णांकृत, मुग़ल कालीन
कटार : कटार पूर्ण रूप से हिन्दू खोज हैं, इसकी उत्पत्ति चौदहवी सदी में दक्षिण भारत में हुयी, देखने में यह एक छोटा चाकू जैसा लगता हैं लेकिन, कवच भेदने के लिए यह बहुत प्रभावी शस्त्र हैं, इसकी वूट्ज़ इस्पात से बनी धार किसी भी कवच को काटने में सक्षम हैं, जैसा की नाम दर्शाता हैं यह शस्त्र धोखे से मारने और  मल्ल युद्ध में बड़ा ही प्रभावी था, इसी वजह से यह पूरे भारत वर्ष में लोकप्रिय हो गया, उत्तर भारत मे लगभग सभी योद्धा इसे अपने सह शस्त्र के रूप में उपयोग करते थे, इसे बड़े आराम से कपड़ो के अंदर भी छिपाया जा सकता था। दूसरा हाथ में इसकी पकड़ किसी पंचिंग दस्ताने की तरह होती थी, इसलिए इस किसी पुंछ या मुक्के की तरह शत्रु पर मारा जाता था। इसकी बनावट अपने आप में अनोखी थी पूरे विश्व में इस तरह की अद्वितीय डिज़ाइन और कही नहीं मिलती हैं। कटार विकिपीडिया


1. साधारण कटार 2. चाँदी का बना हुआ सजावटी कटार









जमधर कटार, वूट्ज़ इस्पात, मुग़ल काल
जमधर कटार, बंद स्थिति मे, मुग़ल काल
जमधर: मध्यकाल में कटार की संरचना पर कई तरह के प्रयोग हुये , जमधर भी उनमे से एक था जिसे और अधिक प्रभावी बनाने के लिए कैंची नुमा तीन फल लगाए गए थे, शत्रु शरीर में वार करने के बाद यह कैंची नुमा फ़लक को खोल दिये जाते थे, जिससे शरीरा के एक बड़े हिस्से को नुकसान पहुचे और शत्रु के बचने के संभवना ही ना रहे। यह तकनीकी का कमाल भारतीयो के दिमाग की उपज था और देखने में यह शस्त्र बहुत ही खतरनाक लगता हैं। इस तरह के शस्त्र लोगो की चोरी छुपे हत्या करने वाले उपयोग में लाते थे। आगे पढे


                                                             जमधर 1, जमधर 2

कटार के अन्य प्रकार

पत्ता, वूट्ज़ और जर्मन इस्पात, मुगल काल
पत्ता : पत्ता एक और पूर्ण रुपेन हिन्दू खोज हैं, इसकी बनावट पहले से ही मौजूद दो शस्त्रो को जोड़ कर ली गयी हैं, कटार और खंडा, पत्ता में दरअसल, कटार का मूठ लगता हैं और खंडा का फल लगता हैं, इस प्रकार एक मराठा योद्धा के लिए युद्ध का ब्रह्मास्त्र बन जाता हैं, पत्ता का प्रयोग योद्धा, कई सारे शत्रुओ से एक साथ लोहा लेने के लिए करता था, पत्ता चलाने वाला दोनों हाथो में पत्ता साध कर तलवार को बड़े ही आक्रामक रूप से घूमते हुये शत्रुओ के बीच में घुस जाता था और तब तक चलाता रहता था जब तक सारे शत्रु समाप्त न हो जाए या भाग न जाए। हाथो को अधिक सुरक्षा देने के उद्देश्य से कोहनी तक का धातु कवर होता था और तलवार को पकड़ने का तरीका बिलकुल कटार की तरह ही होता था। पत्ता को मराठी योद्धा बहुतायत से प्रयोग किया करते थे। आगे की जानकारी विकिपीडिया से



 पत्ता पर और जानकारी के लिए यह विडियो देखे
https://www.youtube.com/watch?v=7niTpIW7dEk







भारतीय शैली में बनी फारसी और तुर्की तलवारे, (वूट्ज़ इस्पात, मुग़ल कालीन)





मुग़ल कालीन तलवारे, मूठ भारतीय चक्राकार शैली मे बनी हुयी हैं, इन स्वर्ण और अन्य बहुमूल्य रत्नो से कलात्मक कार्य किया गया हैं।



1. फारसी शमशीर, भारतीय शैली में , 2. दक्षिण भारतीय शैली में बनी चौड़ी असि, 3. यूरोपियन पुलवार




                                      









                                    






                                          


                                          
































































































































































दिल्ली का लाल किला (Red Fort, Delhi)

किले के द्वार पर फारसी उत्कीर्ण ( Farsi Inscription on Fort Entrance)