Showing posts with label भेदभाव. Show all posts
Showing posts with label भेदभाव. Show all posts

Friday, March 11, 2022

वर्ण व्यवस्था का अस्तित्व और जातिगत समाज में भेद

वर्णाश्रम एवं जातिवाद व्यावहारिक समस्याएं

जातिवाद की वर्तमान समस्या से तो हम सभी परिचित हैं। हमारे आधुनिक समाज में इस पर व्यापक रूप से चर्चाएं होती रहती हैं। इस विभाजनकारी व्यवस्था पर अनेकानेक पुस्तकों की रचना भी हो चुकी है, जो इस व्यवस्था के भयानक दुष्परिणामों की ओर इंगित करती है। वर्तमान व्यवस्था के स्वरूप के बारे में तो हम सब परिचित हैं लेकिन यह स्वरूप कब भारतीय समाज में आस्तित्व में आया इस पर कोई एकमत नहीं है।
कुछ ब्राह्मणवादी लोग इस व्यवस्था को अंग्रेजों की देन मानते हैं, तो कुछ लोग इस व्यवस्था को मुगलकालीन मानते हैं। इसके प्रमाण के तौर पर लोग अक्सर भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम १८५७ का उदाहरण देते हैं, कि कैसे भारत के सभी वर्गों ने बिना भेदभाव, अंग्रेजों के विरुद्ध एक साथ मिलकर युद्ध किया था। कुछ और लोग 16वी-17वी सदी की एक-आध घटना का जिक्र करके उस काल में जाति व्यवस्था के आस्तित्व को ही नकार देते हैं।
इन लोगों को शायद यह ज्ञान नहीं है कि जाति व्यवस्था के आस्तित्व को नकारने वाले सौ उदाहरणों पर इस व्यवस्था की उपस्थिति की पुष्टि करने वाला एक उदाहरण ही भारी पड़ सकता।
जैसे, यदि हम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले के काल का उदाहरण ले तो यह पता चलेगा कि उन दिनों ईस्ट इंडिया कंपनी की सैन्य टुकड़ियों में, जहां से इस संग्राम का उदय हुआ था, जातिवाद का बोलबाला था, सेना स्वयं ही विभिन्न जातियों पर आधारित थी। इस बात के प्रमाण हम आज भी भारतीय सेना के विभिन्न रेजिमेंट स्तर पर देख सकते हैं।

दूसरा उदाहरण हमारे समक्ष मुगल काल के पतन एवं ब्रिटिश काल के उदय के समय से जुड़ा हुआ है इसका विवरण स्वयं एक ब्राह्मण एवं उस समय मौजूद डच ईस्ट इंडिया कंपनी के रिकॉर्ड में मौजूद हैं। पुस्तक का नाम श्री राज्याभिषेक प्रयोग है और इसका लेखन पंडित गागा भट्ट ने किया था। यह वही व्यक्ति थे जिन्होंने शिवाजी महाराज का इंद्रा-अभिषेक किया था। गागा भट्ट बनारस के रहने वाले ब्राह्मण थे। इन्हें शिवाजी ने अपनी राज्याभिषेक के लिए इसलिए बुलाया था क्योंकि पुणे के ब्राह्मणों ने शिवाजी के निम्न जाति से संबंधित होने के कारण उनके अभिषेक से सामूहिक इनकार कर दिया था। अतः शिवाजी को काफी धन खर्च करने के पश्चात बनारस से गागा भट्ट ब्राह्मण को बुलाना पड़ा। गागा भट्ट ने बड़ी चतुराई से शिवाजी के पूर्वजों को मेवाड़ के सिसोदिया वंश से जोड़ने का प्रयास किया इसके लिए कुछ लोककविताओं का भी निर्माण किया गया था। इस आधार पर उसने शिवाजी को क्षत्रिय घोषित कर दिया हालांकि उसी काल के अन्य दस्तावेजों में इस फ्रॉड की पुष्टि कर दी गई थी। अपनी पुस्तक में गागा भट्ट ने शिवाजी का राज्याभिषेक बताया है। इस प्रकार मध्ययुग में जातियां और जातियों से जुड़े भेदभाव के साफ-साफ दर्शन होते हैं।
तालीकोटा के युद्ध में भी देशमुख ब्राह्मण राजा का वर्णन आता हैं जो शाही राजघरानों की तरफ से लडा था। ऐसे ही बहमनी शासन में ब्राह्मण सरदारों का जिक्र आता हैं।

मुगल काल में जातिवाद और इसके विरुद्ध हुए विभिन्न आंदोलनों के अनेक उदाहरण साहित्य एवं लोक कथाओं में मिल जाते हैं। जाति व्यवस्था के बारे में विवरण अबुल फजल द्वारा लिखित अकबरनामा में भी है। उस काल में मिले ताम्रपत्र, शिलालेख भी जाति एवं गोत्र होने और उसके कठोरता से पालन करने के संबंध में मिले हैं।
जैसे कि सोमनाथ क्षेत्र में मिले एक ताम्रपत्र में देवोत्सर्ग घाट पर एक मंदिर निर्माण का जिक्र आया है जो कि काली मां को समर्पित था। इस ताम्रपत्र के अनुसार दो धनिक राजकुमारों द्वारा उस मंदिर के निर्माण का जिक्र आता है परंतु वे दोनों भाई किसी क्षत्रिय जाति से संबंधित ना होकर ब्राह्मण राजकुमार होते हैं इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि मुगल काल में भी जाति व्यवस्था थी और कर्म के अनुसार जाति निर्धारित ना होकर अनुवांशिक थी। मध्यकाल में कई ब्राह्मण व्यापारी थे और कई वैश्य समाज के लोग ब्राह्मणों की भांति संस्कृत ग्रंथ रचना भी कर रहे थे अपने व्यवसाय बदल लेने के कारण भी उनकी जातियों में कोई परिवर्तन नहीं आया, इसका मतलब जाति व्यवस्था स्थाई थी।
एक और बड़ा उदाहरण कालचुरी शासकों के समय में 13वीं सदी में उत्तरी कर्नाटक में देखने को मिला जब कालचुरी राजाओं के ब्राह्मण मंत्री बसवराज ने अपने राज्य में ब्राह्मणों की अन्य जातियों से भेदभाव वाली नीतियों से तंग आकर हिंदू धर्म में ही एक सुधारवादी आंदोलन चलाया जिसे वीरशैव आंदोलन या लिंगायत आंदोलन कहते हैं। कालांतर में यह आंदोलन निचली जाति के बीच (मुख्यत कृषक समाज) इतना लोकप्रिय हुआ कि उत्तरी कर्नाटक की अधिकांश गैर-ब्राह्मण आबादी ने इसे स्वीकार कर लिया। इस आंदोलन का आरंभ ही जातिवादी विचारधारा के विभाजनकारी दुष्परिणामों के कारण हुआ था। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि उस समय में भारत के इस क्षेत्र में इस्लाम का आगमन नहीं हुआ था।
भारत में आठवीं, नवमी और दशमी सदी में अनेको अरबी एवं फारसी यात्रियों का आगमन हुआ जिन्होंने भारत के धर्म, विज्ञान और सामाजिक व्यवस्था का गहन अध्ययन किया। इन यात्रियों में अलबरूनी, इब्नबतूता (13वी सदी), अल मसूदी, गर्दीजी, जेहानी, अल-सामुदी, काजविनी इत्यादि आते हैं। इनके लेखों में ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये सभी यात्री अलग-अलग समय और अलग-अलग देशों से आए थे। ऐसे में एक-आध अपवाद छोड़कर, इस बात की संभावना बहुत कम है कि इन यात्रियों ने एक दूसरे के वृतांत पढ़ें हो। सभी के भारत और भारत के निवासियों के बारे में अलग-अलग प्रेक्षण रहे होंगे जो कि उनके लेखों में झलकते भी है। लेकिन एक बात जो काफी मुस्लिम यात्रियों के वृत्तांतो में मिलती हैं, यहां मौजूद जाति व्यवस्था पर आधारित समाज एवं छुआछूत। गर्दीजी एवं अलबरूनी ने छुआछूत का विस्तृत आँखो देखा विवरण दिया है जो सच के काफी करीब है याद रखिए कि यह भारत में मुस्लिम शासन से पहले का काल था (8वी-11वी शताब्दी)

एक और विवरण जिससे हमें पता चलता है कि भारतीय समाज में 7 वीं सदी के दौरान भी जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था कितनी स्थाई थी। यह विवरण हमें एक अरबी पुस्तक चचनामा से मिलता है। यह सातवीं सदी में सिंन्ध राज्य पर प्रकाश डालती हैं। पुस्तक में दर्शाया गया है कि किस तरह चच नामक एक ब्राह्मण, धोखे से सिन्ध के राजपूत राजा से सत्ता हथिया लेता है। चच का परिवार अरबी हमला होने से दो पीढ़ी पहले से ही सिंध पर राज कर रहा होता है। लेकिन पूरे समय के दौरान चच एवं उसके परिवारजनों यहां तक कि उसके पोते दाहिर को भी एक ब्राह्मण राजा ही कहा जाता रहा। यानी की सातवीं सदी के दौरान भी जाति(वर्ण) व्यवस्था इतना स्थाई रूप धारण कर चुकी थी कि व्यवसाय (कर्म) बदलने के पश्चात भी व्यक्ति की जाति या वर्ण नहीं बदलता था।

अन्तिम सबसे महत्वपूर्ण उल्लेख ह्वेनसांग अपनी पुस्तक में देता हैं और हर्षवर्धन काल के हिन्दुस्तान में जातिप्रथा का आँखो देखा वर्णन हैं। इस बारे में उसकी पुस्तक सि-यू-की (दा तांग सि-यू-जी) का उल्लेख करना महत्वपूर्ण हैं।
जातिप्रथा के उल्लेख रामायण एवं महाभारत में भी मिलते हैं। रामायण की रचना बाल्मीकि ने की थी जिन्हें रत्नाकर के नाम से भी जाना जाता है। रत्नाकर के द्वारा अपने कर्म बदलने के पश्चात भी रत्नाकर डाकू यानी कि बाल्मीकि की पूर्वजाति पहचान मिटी नहीं अपितु उसे अपनी शुद्र जाति से ही जाना जाता रहा। आज भी कोई व्यक्ति उन्हें ब्राह्मण के नाम से नहीं जानता अपितु शुद्र ऋषि के रूप में ही मान्यता है। आज भी आप केवल वाल्मीकि के केस में देखेंगे कि इनके नाम से कोई गोत्र नहीं हैं, जबकि अन्य सभी ऋषियों के नाम से गोत्र चलते हैं, यहाँ तक कि विश्वामित्र (जिन्हे ये क्षत्रिय से ब्राह्मण बने ऋषि कहते हैं उसके नाम से भी गोत्र चलता हैं जिसे कौशिक के नाम से जाना जाता हैं) । विश्वामित्र की कहानी अलग हैं, यह दरअसल उपाधि थी इस नाम के कई ऋषि हुये हैं । अब क्षत्रिय वाला कौन था कोई नहीं जानता।

जाति व्यवस्था के अन्य उल्लेख हमें उस दौरान लिखित पुराणों एवं मनुस्मृति से भी मिल जाते हैं। जाति और गोत्र की स्थितियाँ हमें उस काल की बौद्धिक कथाओं, शिलालेखों और ताम्रपत्रों से भी मिलती हैं। शिलालेखों में जाति और गोत्र लिखवाना शुंग काल से दिखने लगता हैं। इसका मतलब यह नहीं कि यह प्रथा शुंग काल से चालू हुयी, बल्कि अभिलेख हमे शुंग काल से ही दिखने आरंभ हुये हैं।

कुछ अन्य सुधारक ब्राह्मणवादी अति चतुरता से मध्यकाल एवं प्राचीनकाल में जाति व्यवस्था के होने के प्रमाण को स्वीकार करते हैं परंतु मौर्य काल या उससे पूर्व के समय जाति आधारित व्यवस्था की उपस्थिति को एक सुर से नकार देते हैं। वे इसके स्थान पर वैदिक वर्ण व्यवस्था के आदर्श स्वरूप को होने को बताते हैं। हालांकि मौर्य काल में लिखित प्रमाण विरल ही हैं। इनकी दलील भी यद्यपि कोई प्रमाण पर आधारित नहीं है लेकिन वे केवल यह मानकर चलते हैं कि जाति (वर्ण) व्यवस्था का खंडन करने वालों के पास भी इस बात का कोई प्रमाण नहीं होगा। और यह सच भी है कि इसके शिलालेखीय या ताम्रपत्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इसके प्रमाण हमें उस काल के ब्राह्मण एवं बौद्ध रचनाओं में ही ढूंढने पड़ेंगे।
ऐसा पहला उदाहरण हमें मगध के नन्द वंश का बताया जाता हैं जो निम्न कुल के थे और जन्म से शुद्र थे। मौर्यों के बारे में भी यही बोला गया हैं कि वे निम्न वर्ग से सम्बन्ध रखते थे, एक ऐसी पहचान जो उनके शासक बनने के बाद भी खत्म नहीं हुई। बुद्ध के जीवन के ऊपर लिखे लेखों में यह बताया गया है कि जब बुद्ध वन की तरफ निकले तो उन्हे मार्ग में तपस्वीयों का एक समूह मिला जिसके साथ वे भी जुड़ गए, इस समूह में दो ब्राह्मण भी थे। सोचने वाली बात यह है कि जब पूरा समूह एक ही मत को मानने वाले तपस्वियों का था तो सभी तपस्वी ब्राह्मण क्यों नहीं थे, केवल दो ही लोग ब्राह्मण क्यों थे। इसका तो एक ही मतलब है कि ब्राह्मण शब्द उन दिनों भी जाति सूचक ही था। अशोक के शिला लेखो में ब्राह्मण, श्रमण, आजीवक, उपासक, सन्यासी इत्यादि अलग अलग शब्दो का अलग अलग परिपेक्ष में प्रयोग हुआ हैं जिसको अभी पूरी तरह से समझा नहीं जा सका हैं।
महाभारत के अनुसार सिंध के राजा ने अपने राज्य में बसाने के लिए हस्तिनापुर से ब्राह्मण परिवारों की मांग की थी।

क्या वेदों में वर्णित वर्ण व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्था से भिन्न थी ?
आधुनिक युग के ब्राह्मण वादी यह दर्शाने में जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं कि ऋग्वेदिक समाज में जो वर्ण व्यवस्था थी, वर्तमान जाति व्यवस्था से बिल्कुल भिन्न थी और एक विभाजनकारी व्यवस्था नहीं थी। यह दलील ठीक वैसी ही है जैसे आधुनिक मुस्लिम मौलवियों द्वारा "पृथ्वी के स्वरूप पर दी गई दलील"।
20वीं सदी के अंत तक मौलवी,  कुरान के अनुसार पृथ्वी को चपटा करार देते थे और पृथ्वी को गोल कहने वाले के विरुद्ध इस्लाम विरोधी कहकर फतवे निकाल देते थे। लेकिन जब बीसवीं सदी की खोजों और उपग्रह तस्वीरों से यह साबित हो गया कि धरती गोल है तो आधुनिक युग के अनुसार मौलवियों ने अपनी व्याख्याओं में उलटफेर करके उसी पृथ्वी को गोल कहना चालू कर दिया। हालांकि कुरान में कोई बदलाव नहीं किया गया।
इसी प्रकार हमारे ब्राह्मणवादी समाज द्वारा वर्ण एवं जाति व्यवस्था में अंतर का डंका बजाना अभी हाल की घटना हैं। उन्नीसवीं सदी से पहले हमे कोई साहित्यिक ग्रन्थ नहीं मिलता जिसमें जाति या वर्ण व्यवस्था को अलग बताया गया यह केवल आधुनिक युग की वैज्ञानिक सोच आने के बाद ही हुआ हैं। आर्यसमाज इस विषय में पहला सुधारक संगठन हैं।
बहुत से प्रगतिवादी ब्राह्मण यह कहते हैं कि प्राचीन वर्ण व्यवस्था आधुनिक एवं मध्यकालीन जाति व्यवस्था से पूर्णतया भिन्न थी। हालांकि इसके वास्तविक स्वरूप पर वे भी एक मत नहीं है। कुछ ब्राह्मणवादी इसे कर्म पर आधारित व्यवस्था बताते हैं और बहुत से आर्य समाजी इसे गुण आधारित व्यवस्था बताते हैं। इसलिए हम दोनों तरह की व्यवस्थाओं को प्रायोगिक प्रारूपों पर लागू कर देखते हैं कि कौन सी व्यवस्था व्यवहारिक सिद्ध हो सकती थी। आगे बढ़ने से पूर्व हमें यह जानना आवश्यक है कि ऋग्वेद में इस वर्ण व्यवस्था पर क्या कहा गया है।👇🏻

 ब्राह्मणोंस्य मुखमासीद्वाह राजन्य: कृत: ।
 ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्यां शुद्रो अजायत ।।

 ऋग्वेद - मण्डल 10-90-12

 ब्राह्मण - मुख से, राजन्य - बाहु से
 वैश्य - मध्य भाग से, शुद्र - पाँव से

उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट हैं कि वर्ण या जाति जैसी कोई ना कोई व्यवस्था इस श्लोक के निर्माण के दौरान अवश्य ही रही होगी जिसका रचनाकार ने श्लोक के जरिए वर्णन किया है। अब प्रश्न यह है कि व्यवस्था का प्रकार कैसा था, इसके प्रकार पर वेदो में तो कुछ खास प्रकाश नहीं डाला गया हैं, लेकिन थोड़ी बहुत हिंट तो मिल जाति हैं जैसी इसी पुरुष सूक्त में अन्यत्र आदिपुरुष के मुख जिससे ब्राह्मण पैदा होता हैं वही से अग्नि और इंद्र का जन्म दिखाया हैं, (मतलब ब्राह्मण का स्थान वैदिक देवता इन्द्र और अग्नि से कम नहीं हैं।), दूसरा आदिपुरुष की नाभि को बीच का आसमान बताया गया हैं। इससे ऊपर स्वर्ग और नीचे पृथ्वी लोग बताया गया हैं। (अर्थात ब्राह्मण और क्षत्रिय स्वर्ग के निवासी हुये, वैश्य और शूद्र पृथ्वी के निवासी) इस प्रकार अंतर तो अप्रत्यक्ष रूप से ऋग्वेद में ही उपलब्ध है।
वेदोत्तर लेखों या ग्रंथों (पुराण, स्मृति, धर्मसूत्र) में इसे जाति जैसा स्थाई ही माना गया है। अतः उन ग्रंथों पर चर्चा व्यर्थ है क्योंकि अधिकतर नव-सुधारवादी ब्राह्मण उन ग्रंथों को अस्वीकार कर देते हैं। इनके अनुसार वर्ण आधारित व्यवस्था व्यक्ति के कर्म पर आधारित थी अर्थात जिसका जैसा कर्म उसका वैसा वर्ण हुआ है।  हालांकि वेद इस बारे में मौन है और इसी संदेह का फायदा उठाकर, नव सुधारक ब्राह्मण वादी इस कथन को मानते हैं कि " कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था स्थाई नहीं थी अपितु व्यक्ति द्वारा जीविकोपार्जन के कर्मानुसार बदलती रहती थी। "
परंतु यह कह देना जितना आसान है वास्तविकता के धरातल पर ऐसा होना बहुत ही मुश्किल है और लगभग असंभव ही है। कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था को हम ऋग्वेदकाल के सामाजिक प्रारूप पर रखकर जांच करेंगे और फिर इन प्रेक्षणों के आधार पर अपना निष्कर्ष निकालेंगे। पाठकों से अनुरोध हैं कि आप अपनी कसौटी पर वर्णाश्रम को अवश्य परखे तभी इसकी वास्तविकता पर विश्वास करें।

परिदृश्य 1
मान लीजिए ऋग्वेदिक काल के कृषक परिवार में एक व्यक्ति उसकी धर्मपत्नी दो पुत्र एवं दो पुत्रियां और माता-पिता है। व्यक्ति कृषक है, एक पुत्र शिक्षार्थी है एवं एक पुत्र मन्दबुद्धि होने की वजह से कोई काम नहीं करता और घर पर ही रहता हैं। पुत्रियों की उम्र किसी भी तरह का काम करने के लिए बहुत कम हैं। पत्नी ग्रहणी है और परिवार संभालती है। माता-पिता अत्यंत वृद्ध होने के कारण जीविकोपार्जन का कोई कार्य नहीं करते हैं।
----------------------------
प्रेक्षण- इस परिदृश्य में केवल व्यक्ति ही ऐसा सदस्य है जो जीविकोपार्जन का कार्य करता है अतः कर्मानुसार उसका वर्ण तो तय किया जा सकता है। लेकिन वर्णाश्रम के अनुसार परिवार के अन्य सदस्यों का वर्ण किसी श्रेणी में नहीं डाल सकते।


परिदृश्य 2
ऋग्वेदिक काल के किसी ग्राम में एक व्यक्ति है, इस व्यक्ति के परिवार में चार भाई हैं, एवं उनकी पत्नियां एवं पुत्र-पुत्रियां हैं।
मुख्य व्यक्ति ग्राम का मुखिया है एवं उसके भाई भी खरीफ़ ऋतु में उसके साथ कृषि कार्य करते हैं। स्वयं मुख्य व्यक्ति अपने खाली समय में ग्राम में विवादों का निपटारा करता है एवं शिक्षित होने की वजह से अध्यापन एवं धार्मिक अनुष्ठान का कार्य करता हैं। दूसरा भाई स्थानीय राजा के यहां सैनिक के कार्य का निर्वाहन भी करता है। और उससे छोटा भाई अपने कृषि कार्य के अलावा राजा के खेतों को जोतता हैं। सबसे छोटा भाई अपंग है अतः कुछ कार्य नहीं करता और जीवन यापन के लिए अपने बड़े भाइयों की दया पर निर्भर है। घर की स्त्रियां जीविकोपार्जन के लिए कोई कार्य नहीं करती और बच्चों की देखभाल एवं घर चलाती हैं।
----------------------------
प्रेक्षण - यह परिदृश्य एक सामान्य ऋग्वेदिक संयुक्त परिवार का है। घर का मुखिया वर्ष में कम से कम दो कार्य तो करता ही है उसका एक कार्य कृषि का है जबकि अन्य कार्यों में अध्यापन और धार्मिक अनुष्ठान है। ऐसे में उसका कर्म वर्ष में दो बार बदलेगा, इस प्रकार उसका वर्ण क्या तय किया जाये? वैश्य या ब्राह्मण
मुखिया के अन्य भाई कृषक होते हुए भी अन्य कार्यों में लिप्त हैं जैसे एक राजा का सैनिक है दूसरा राजा का सेवक है।
सैनिक होने के नाते उसका वर्ण क्षत्रिय होना चाहिए, लेकिन व्यक्ति कृषक भी हैं।
वहीं दूसरे भाई का वर्ण सेवक होने के कारण शुद्र होना चाहिए लेकिन वह कृषि कार्य भी करता है तो वैश्य भी होना चाहिए।
अन्तिम भाई जो अपंग होने के कारण कोई कार्य नहीं करता उसका क्या वर्ण होना चाहिए?
स्त्रियां एवं बच्चे जीविकोपार्जन के लिए कुछ काम नहीं करते इनका वर्ण क्या होगा? क्या उन्हें म्लेच्छ में रखेंगे?

ऋग्वेद इस बारे में मौन हैं, ब्राह्मण ग्रंथ जन्मजात जाति पर ज़ोर देते हैं? अब क्या सुधारवादी ब्राह्मण तय करेंगे कि किसका कौन सा वर्ण है और बदलते कर्मो के अनुसार वर्णो का हिसाब रखेंगे?


परिदृश्य 3
एक ऋग्वेदिक ग्राम में ऋषि अपने परिवार सहित निवास करते हैं। स्थानीय शासक के दान से उन्हें ग्राम में काफी भूमि मिली हुई है। जिस पर वे कृषि कार्य करवाते हैं। एक ग्राम के अनुदान मिले होने से गांव की उपज का एक हिस्सा उन्हें बतौर कर के रूप में दिया जाता है। उनकी कृषि भूमि को जोतने के लिए कई नौकर लगे हुए हैं। इधर अपने आश्रम में वह शिष्यों को पढ़ाने एवं अध्ययन का कार्य और ग्राम एवं राजा के परिसर में होने वाले धार्मिक अनुष्ठान भी करते हैं। ग्राम के सभी निवासी उनका बहुत आदर सम्मान करते हैं। उनकी पत्नी पतिव्रता ग्रहणी है एवं उनके चार पुत्र हैं जो उनके साथ शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करते हैं।
-------------------------------
प्रेक्षण- चूंकि ऋषि स्वयं शास्त्रों का अध्ययन करते हैं ऐसे में वह ब्राह्मण वर्ग के हुए परंतु दूसरी तरफ उन्होंने अपनी कृषि भूमि में कर्म के लिए सेवक रखे हुए हैं, ऐसे में वे सेवा लेने वाले वैश्य के वर्ण में हुए।
ग्राम से कर प्राप्त करते हैं अतः वे कर लेने वाले भूपति हुये (क्षत्रिय), पत्नी आजीविका का कोई काम नहीं करती इसलिए शूद्र हुयी।



परिदृश्य 4
ऋग्वेद काल में एक लोहार है जिसके पास अपनी भूमि भी है लोहे के औजारों के निर्माण और भूमि पर कृषि कार्य के ऊपर वह अपना जीविकोपार्जन करता है। युद्ध होने की दशा में उसे राजा के लिए अस्त्र-शस्त्र का निर्माण करना पड़ता है एवं स्वयं युद्ध में भाग भी लेना पड़ता है। लोहे के काम में उसके बच्चे एवं पत्नी भी सहायता करते हैं।
------------------------------
प्रेक्षण - एक ही पुरुष लोहार, कृषक एवं सैनिक की भूमिका निभाता है। अतएव उसका वर्ण, कर्म के अनुसार बदलता रहता हैं।
उसकी पत्नी एवं बच्चे जीविकोपार्जन के लिए कुछ नहीं करते अतः वर्णाश्रम से बाहर है लेकिन जब वह लोहार का काम स्वयं करते हैं तो उनका वर्ण वैश्य हो जाता है, ऐसे में इन सब का हिसाब-किताब किसके पास रहता है?



परिदृश्य 5
वैदिक काल के नगर में एक व्यक्ति निवास करता है जिसके पास कोई काम नहीं है अर्थात कोई वर्ण नहीं है। कुछ दिन वह कुम्हार के पास मिट्टी के दिए एवं कुम्भ बनाने का काम करता है। फिर एक पुरोहित के घर पर कुए से जल भरकर लाने का काम करने लगता है। कुछ समय पश्चात उसने एक व्यापारी को उद्यान में माली की नौकरी की। फिर किसी राजा के यहां सैनिक बन गया। समय होने के बाद उसने अपनी बुद्धि बल से राजा के दूत के रूप में रोजगार प्राप्त किया। दूत के रूप में अन्य देशों में यात्रा के दौरान उसकी मुलाकात एक व्यापारी से होती है जिसके साथ मिलकर वह व्यापार में घुस जाता है। इस व्यापार में उसको बहुत फायदा होता है और काफी धन अर्जित करता है। व्यापार करते-करते उसका मन वैराग्य में उत्पन्न होता है और सब कुछ अपने सगे-संबंधी, पुत्र-पुत्रियों को त्यागकर ईश वंदना एवं उपासना में जीवन लगा देता है।
------------------------
प्रेक्षण - जीवन काल में इस व्यक्ति ने इतने कर्म बदले हैं कि हर कर्म का हिसाब रखना संभव नहीं है। यह एक सामान्य घटना है जो आमतौर पर नगर में रहने वाले हर एक व्यक्ति के साथ घटती थी। अपने जीवनकाल में व्यक्ति कम से कम पाँच या छह बार अपने रोजगार बदलता है। ऐसे में उसके कर्मों का हिसाब कौन और कैसे रखेगा। और फिर वर्ण कैसे तय होगा?


 परिदृश्य 6
एक ऋग्वेदिक नगर में प्रसिद्ध ज्ञानी ब्राह्मण रतिदेव निवास करते थे। इनका एक पुत्र चन्दनकुमार था। चंदन भी अपने पिता की भाँति भारतीय शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन में समय गुजारा करता था। एक दिन उसका एक मित्र रतन देव मिलने आया उसने चंदन कुमार को बताया कि,"मित्र सुदूर सौराष्ट्र प्रांत में व्यापार में भारी मुनाफा हैं, विदेश में भारतीय वस्तुओं की भारी मांग है और मानसून के बाद के चार माह में आप विदेश में उन वस्तुओं को बेचकर काफी धन कमा सकते है।"
अपने मित्र की बात चंदन को काफी जँची और प्रत्येक वर्ष मानसून के बाद चार माह के लिए चंदन सुदूर विदेश की यात्रा करके व्यापार करने लगे। वर्ष के बाकी समय में चंदन अपने पिता रतिदेव के साथ शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन और धार्मिक अनुष्ठानों में गुजारते थे। कई वर्षों तक धन जमा करने के बाद चंदन कुमार जी ने किसी अन्य नगर में विशाल महल का निर्माण कराया एवं धन-धान्य, नौकर-चाकर युक्त किसी राजसी व्यक्ति की तरह वैभवपूर्ण गुजर-बसर करने लगे। अपने वैभवशाली जीवन चर्या की वजह से चंदन का प्रभाव राजसी दरबार पर भी पड़ा और वह धीरे-धीरे कुलीन लोगों के नजदीक आता गया। अन्त में वह राजा के सामंती समूह में भी शामिल हो गया।
-------------------------------
प्रेक्षण - चंदन कुमार एक प्रसिद्ध ब्राह्मण परिवार से धीरे-धीरे वैश्य बना और फिर अन्त में क्षत्रिय वर्ग में शामिल हो गया। ऐसे उदाहरण बहुत आम घटनाएं हैं लेकिन ऐसे में कर्मो का हिसाब किताब रखना और फिर वर्णों का निर्धारण करना एक बेफिजूल और श्रमसाध्य कार्य हैं।


परिदृश्य 7
जो लोग घुमंतू होते हैं, (ऋग्वेद काल में काफी लोग (आर्य) घुमंतू जीवन व्यतीत करते थे), वे जगह और उपलब्धता के अनुसार अपने कर्म बदलते रहते हैं। ऐसे में इनका वर्ण कैसे तय करेंगे। मान लीजिये तय कर भी दिया तो कर्म बदलने से वर्ण भी बदलेगा। ऐसे में इनके बदलते कर्मो के अनुसार वर्ण बदलने का हिसाब कौन रखेगा? क्या वर्ण व्यवस्था की यहाँ कोई उपयोगिता भी रह जाती हैं?


कुछ आर्य समाजी या नव सुधारक ब्राह्मणवादी कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था को साबित नहीं कर पाते तो बहस में बने रहने के लिए गुण आधारित वर्ण व्यवस्था को प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं। इस व्यवस्था के अनुसार वर्णों का निर्धारण व्यक्तिगत गुणों के आधार पर होता है। परन्तु इस व्यवस्था में तो और भी लोच है क्योंकि बचपन से लेकर बुढ़ापे तक व्यक्ति का स्वभाव एवं प्रकृति बदलते रहते हैं इस पर परिवार समाज एवं परिस्थितियों का बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति पूरे जीवन एक ही प्रकार के गुणों का प्रदर्शन करता रहे, ऐसा संभव नहीं हैं। गुणों पर अन्य बाहरी चीजों का भी बहुत प्रभाव पड़ता है जैसे कि क्रोध, लोभ, वासना, छल इत्यादि।
गुणों को पहचानना और उसके अनुसार वर्ण का निर्धारण करना निरी मूर्खतापूर्ण बात हैं जिसका कोई आधार नहीं हैं। आप स्वयं गुण आधारित व्यवस्था पर उदाहरण रखकर जांच सकते हैं

जैसे :- ऋग्वेदिक काल में एक धनी व्यापारी था, उसने राजा का कर बचाकर, झूठ बोलकर और मिलावटखोरी इत्यादि से धनार्जन किया था। अपने गुणों से वह बहुत दुष्ट व्यक्ति था। उसे अवश्य ही शूद्र वर्ण मिलना चाहिए।  लेकिन जनता को उसकी सच्चाई पता नहीं था, परंतु यही व्यक्ति अत्यधित धर्म कर्म का काम भी करता था। दीन दुखियो को दान देना, मंदिरो में पुजा अर्चना करवाना, ब्राह्मणो को दान, निर्माण इत्यादि जैसे पुण्य काम करता था। ब्राह्मणो के नज़र में एक श्रेष्ठ कुलीन व्यक्ति था। अपने मृदुल व्यवहार से भी अत्यधिक शालीन लगता था। अत: जो भी व्यक्ति उसके व्यापार में बेईमानी को नहीं जनता था उसे उच्च कुल का आदर्श समझता था। ऐसे में उसके वर्ण का निर्धारण कैसे करेंगे जबकि उसके सच्चे व्यक्तित्व का ही पता नहीं है। इसी प्रकार व्यक्ति के गुण भी स्थायी नहीं रहते बल्कि समय समय पर बदलते रहते हैं, कई बार व्यक्ति का असल गुण भी जाहिर नहीं पाता हैं, ऐसे में गुण आधारित जाति व्यवस्था को लागू कर पाना संभव नहीं हैं, और अगर कोशिश भी की जाये तो ऐसे लोगो की बड़ी टीम बनानी पड़ेगी जो लोगों के गुणो का हिसाब रखकर उसके वर्ण का निर्णय कर सके। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्म और गुण दोनों के आधार पर किसी व्यक्ति का वर्ण निर्धारण एवं उसका हिसाब रखना एक बहुत मुश्किल, दुरूह एवं अनावश्यक, अव्यवहारिक कार्य हैं जिसका असल में समाज में कोई खास महत्व भी नहीं रहता (विशेषकर तब जब व्यक्ति के कर्मो के अनुसार उसका वर्ण भी बदल रहा हो। )

दूसरी बड़ी समस्या बदलते कर्मो या गुणो के आधार पर व्यक्ति के वर्ण में बदलाव का हिसाब किताब रखना हैं यह भी एक बड़ी समस्या हैं, इसीलिए ऐसी व्यवस्था किताबों में तो अच्छी लगती हैं परन्तु असल में इनका आस्तित्व असम्भव हैं। हालाँकि गुणकर्म आधारित वर्ण व्यवस्थाओं का कोई भी जिक्र ऋग्वेद में नहीं मिलता लेकिन किसी भी अन्य जानकारी के अभाव में आज के हिन्दू ब्राह्मण (विशेष तौर पर आर्य समाजी) वैदिक काल में ऐसी व्यवस्था के चलन में होने पर विश्वास करते हैं। जबकि व्यावहारिक धरातल पर ऐसा बिलकुल भी सम्भव नहीं हैं।